भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था क्या थी? | ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य, शूद्र

 

भारत में वर्णाश्रम व्यवस्था क्या थी? / ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र



वर्णाश्रम व्यवस्था-


भारतीय परिवेश में ऋग्वैदिक काल (1500 ई.पू. से 1000 ई.पू.) में समाज के संचालन के लिए 'वर्ण व्यवस्था' कि शुरूआत की गई थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत समाज को चार वर्णों में विभक्त किया गया था। चारों वर्णों के अलग-अलग कार्य होते थे। इन वर्णों के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आते थे। इनमें से ब्राह्मणों का कार्य यज्ञ, अनुष्ठान एवं अन्य धार्मिक कार्य करना था। क्षत्रियों का कार्य युद्ध लड़ना एवं समाज की रक्षा करना था। वैश्य लोग व्यापार एवं वाणिज्य से सम्बन्धित थे। शूद्र साफ-सफाई एवं अन्य छोटे कार्य करते थे। ऋग्वैदिक काल में चारों वर्णों के लोगों का सम्मान किया जाता था। सभी को उनकी क्षमता के अनुसार व्यवसाय चुनने का अधिकार प्राप्त था। किसी भी व्यक्ति को जन्म के आधार पर अछूत नहीं माना जाता था। सभी व्यक्तियों को उनकी क्षमता और कौशल के आधार पर वर्णों में विभक्त किया गया था। आगे चलकर उत्तर वैदिक काल (1000 ई.पू. से 600 ई.पू.) में वर्ण व्यवस्था कठोर हो गई और यह व्यक्ति के कौशल और व्यवसाय पर आधारित न होकर जन्म पर आधारित कठोर जाति व्यवस्था बन गई। उत्तर वैदिक काल में व्यवसाय आनुवंशिक होने लगे।


चारों वर्णों की उत्पत्ति

ऋग्वेद के दशवें मण्डल में वर्णित पुरुषसूक्त में चारों वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख है। इस सूक्त के अनुसार विराट पुरुष के मुख से ब्राम्हणों, भुजाओं से क्षत्रिय, जाँघों से वैश्यों और पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है। 'ऐतरेय ब्राह्मण' में चारों वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है।



ब्राह्मण

साधारणतः ब्राह्मणों के लिए 'एहि' (आइए) शब्द का प्रयोग किया जाता था। इन्हें समाज के चारों वर्णों में प्रथम स्थान प्राप्त था। इनका मूल कार्य यज्ञ, अनुष्ठान, पूजा पाठ एवं अन्य धार्मिक कार्य करना था। ब्राह्मणों को 'द्विज' कहते  थे। ये उपनयन संस्कार के अधिकारी थे। ऋग्वैदिक काल में ब्राह्मणों की शक्तियाँ सीमित थीं। उत्तर वैदिक काल में यज्ञ का महत्व बढ़ गया, फलस्वरुप ब्राह्मणों की शक्तियों में अपार वृद्धि हुई। ब्राह्मणों को पूजनीय माना जाता था।

क्षत्रिय

क्षत्रियों के लिए 'आगहि' (आओ) शब्द का प्रयोग किया जाता था। इनका मूल कार्य संकट के समय में समाज के सभी वर्गों की रक्षा करना था। ये लोग विभिन्न अस्त्रों- शस्त्रों के ज्ञाता होते थे। इन्हें चारों वर्णों में दूसरा स्थान प्राप्त था। इन्हें 'द्विज' कहा जाता था। ये उपनयन संस्कार के अधिकारी थे। यह वर्ग साहसी प्रकृति के होते थे।

वैश्य

इस वर्ग में प्राया कामकाज करने वाले लोगों को रखा गया है। वैश्यों के लिए 'आद्रव' (जल्दी आओ) शब्द का प्रयोग किया जाता था। इनका मूल कार्य व्यापार करना था। ये लोग कृषि भी करते थे। इन्हें समाज के चारों वर्णों में तीसरा स्थान प्राप्त था। उत्तर वैदिक काल में केवल वैश्य ही कर चुकाते थे। ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों वैश्यों द्वारा वसूले गए राजस्व पर जीते थे। वैश्यों को भी 'द्विज' कहा जाता था। ये लोग उपनयन संस्कार के अधिकारी थे। यह लोग समाज में कृषि करके तथा व्यापार करके समाज में सब का भरण पोषण करने में सहायक होते थे।

शूद्र

शूद्रों के लिए 'आधाव' (दौड़कर आओ) शब्द का प्रयोग किया जाता था। इन्हें समाज में चौथा अर्थात् सबसे निचला स्थान प्राप्त था। इन लोगों का मूल कार्य अन्य तीनों वर्णों की सेवा करना था। ये उपनयन संस्कार के अधिकारी नहीं थे। इन्हें अपात्र या आधारहीन माना जाता था।
यह वर्ग सेवाओं से सभी वर्गों का आदेश मानते थे तथा उनकी सेवा करते थे। इस वर्ग के लोगों को खास आदर नहीं दिया जाता था समझ में निम्न प्रकति का माना जाता था

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